शेखावाटी की वेशभूषा (Costumes - Dress in Shekhawati)

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शेखावाटी की वेशभूषा (Costumes - Dress in Shekhawati)

राजस्थान में शेखावाटी के लोगों को अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा के लिए जाना जाता है। यहां के रीति-रिवाज, वेशभूषा तथा भाषा उनकी जीवनशैली के बारे में बहुत कुछ बताती है। राजस्थान के लोगों का रहन-सहन सादा और सहज है। यहां की हर वस्तु रंगों से भरी है। पहनावे शीशे और धागे के कामों से सजी होती हैं जो मन को छू लेती हैं।
राजस्थान देश भर में अपनी संस्कृति तथा प्राकृतिक विविधता के लिए जाना जाता है। यहां के रीति-रिवाज, लोगों के पहनावे तथा उनकी भाषा सादगी के साथ-साथ अपनेपन का भी अहसास कराती हैं। राजस्थान के लोगों का पहनावा रंगों से सराबोर होता है। राजस्थान के लोगों का रहन-सहन सादा और सहज है। राजस्थान के लोग जीवटवाले तथा ऊर्जावन होते हैं साथ ही जीवन के हर पल का आनंद उठाते हैं। राजस्थानी महिलाएं अपनी सुंदरता के लिए मशहूर हैं। राजस्थान के लोग रंगीन कपड़े और आभूषणों के शौकीन हैं। रहन-सहन, खान-पान और वेशभूषा में समय के साथ थोड़ा-बहुत परिवर्तन तो आया है, लेकिन राजस्थान अभी अन्य प्रदेशों की तुलना में अपनी संस्कृति, रीति-रिवाजों और परंपराओं को सहेजे हुए है।
राजस्थानी औरतों के बारे में सोचते ही, एक रंगों से भरी तस्वीर जेहन में आती है। सिर से पांव तक रंग-बिरंगे कपड़े, आभूषणों पर उत्कृष्ट कारीगरी और कशीदे वाली जूतियां राजस्थानी महिलाओं की पहचान हैं।
राजस्थान के घाघरा/लहंगा के बारे में कौन नहीं जानता। घाघरा या लहंगा कमर से पांव तक लंबा होता है, इसमें खूब सारा घेरा होता है। हालांकि इसकी लंबाई में समय-समय पर बदलाव होता रहा है। घाघरे को रंग-बिरंगे डिजाईनों से सजाकर शीशे के काम से सुसज्जित किया जाता है और इसे चोली के साथ पहना जाता है। इन्हें चोली के अलावा ब्लाउज, कुर्ती या कांचली के साथ भी पहना जाता है। ओढऩी, चुनरी या दुपट्टा राजस्थानी औरतों की शान हैं। इसका एक कोना घाघरे के अंदर कमर पर अटकाकर दूसरे सिरे से सिर को ढंका जाता है। रंग बिरंगी ओढऩीयां, यहां की औरतों की खूबसुरती में चार-चांद लगाती हैं। ओढऩी का रंग और डिजाईन बहुत-सी बातों पर निर्भर करता है। यह अलग-अलग उम्र की महिलाओं के लिए अलग-अलग तैयार किया जाता है।
राजस्थान के लोगों को अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा के लिए जाना जाता है। यहां के रीति-रिवाज, वेश-भूषा तथा भाषा उनकी जीवनशैली के बारे में बहुत कुछ बताती हैं। यहां के लोगों का रहन-सहन सादा और सहज है। शीशे और धागे के कामों से सजी यहां की हर वस्तु रंगों से भरी हैं, जो मन को छू लेने वाली हैं।
  

Ghaghra choli
Ghaghra choli
Rajput Uniform
Rajput Uniform
 













 

राजस्थानी ड्रेस
Rajasthani Dress
राजस्थानी पहनावा

राजस्थान के लोगों का पहनावा रंग-रंगीला है। पुरूष और महिलाएं दोनो ही पारंपरिक लिबास पहनते हैं। ये लिबास पूरी तरह राजस्थान के मौसम, लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर एवं उनके व्यवसाय से प्रभावित होते हैं। यहां की सांस्कृतिक पोशाक: पोटिया, धोती, बांदा/अंगरखा, कुर्ता, बुगातारी, पाचेवारा, खोल, धाबला (शॉल), तिलक, बुरखा, अचकन आदि हैं। पुरुष पोशाक में पगड़ी, अंगरखा, धोती या पजामा, कमरबंद या पटका शामिल है और महिलाओं की पोशाक में घाघरा, चोली, कुर्ती, पोमजा, चूनड़ी और ओढऩी शामिल हैं। पारंपरिक रूप से राजस्थानी पुरूष धोती पहनते हैं। धोती 2-3 मीटर का लंबा सूती का कपड़ा होता है जिसे एक खास तरीके से कमर पर बांधा जाता है। धोती के अलावा पैजामा भी पहना जाता है। पैजामे की तरह सुथान, इजर,सलवार और घुटाना जैसे कुछ अन्य कपड़े भी पहने जाते हैं। उपर की पोशाक में शामिल है चोगा, जामा, बादी कुर्ता, अंगरखा और अचकन। रोजमर्रा की जिंदगी में कुर्ता ही सबसे लोकप्रिय है और त्योहारों जैसे खास दिन पर अंगरखा या अचकन पहनी जाती है। जिस तरह ओढऩी राजस्थानी महिलाओं कि पहचान है उसी तरह रंग-बिरंगी पगड़ी पुरूषों की पहचान है। यह पगडिय़ा पारंपरिक तौर पर बांधिनि कपड़े से बनती हैं, परंतु कपड़ों से मेल खाती या खास त्योहारों पर विभिन्न प्रकार की पगडिय़ां बांधी जाती हैं।

Dhoti Kurta
Dhoti Kurta
Turban
Turban
 
 


















Different Type Turban in Rajasthan

लेकिन आजकल पारंपरिक कपड़ों पर फैशन हावी हो रहा है औरतें सलवार सूट, जींस, टी-शर्ट और पुरूष पैंट/जींस, टी-शर्ट, आदि पसंद कर रहे हैं। फैशन के इस नए दौर में भी राजस्थान में यह प्रभाव बहुत कम है। यहां के लोगों का सांस्कृतिक एवं पारंपरिक प्रेम आज भी उन्हें भारत में एक अलग और विशेष पहचान दिलाता हैं।

राजस्थान या राजस्थानी संस्कृति से जुङे लोगों के लिए लहरिया सिर्फ कपङे पर उकेरा गया डिजाइन या स्टाइल भर नहीं है। ये रंग बिरंगी धारियां शगुन और संस्कृति के वो सारे रंग समेटे हैं जो वहां के जन जीवन का अटूट हिस्सा हैं। यहां सावन में लहरिया पहनना शुभ माना जाता है। आज भी गांव ही नहीं शहरी संस्कृति में भी लहरिया के रंग बिरंगे परिधान अपनी जगह बनाये हुए है। लहरिया की ओढनी या साङी आज भी महिलाओं के मन को खूब भाती है।
राजस्थान के उल्लासमय लोक सांस्कृतिक पर्व तीज के अवसर पर धारण किया जाने वाला सतरंगी परिधान लहरिया खुशनुमा जीवन का प्रतीक है। सावन में पहने जाने वाले लहरिये में हरा रंग होना शुभ माना जाता है जो कि प्रेरित है प्रकृति के उल्लास और सावन में हरियाली की चादर ओढे धरती माँ के हरित श्रृंगार से

लहरिया
लहरिया
लहरिया राजस्थान का पारंपरिक पहनावा है सावन के महीने में महिलाएं इसे जरूर पहनती हैं। शादी के बाद पहले सावन में तो बहू-बेटियों को बहुत मान-मनुहार के साथ लहरिया लाकर दिया जाता है। आज भी राजसी घरानों से लेकर आम परिवारों तक लोक संस्कृति की पहचान लहरिया के रंग बिखरे हुए है।
कहते हैं कि प्रकृति ने मरूप्रदेश को कुछ कम रंग दिए तो यहां लोगों ने अपने पहनावे में ही सात रंग भर लिए, लहरिया उसी का प्रतीक है। रेगिस्तान में बसे लोगों के सृजनशील मन ने तीज के त्योंहार और लहरिया के सतरंगी परिधान को जीवन का हिस्सा बना प्रकृति और रंगों से नाता जोड़ लिया | तभी तो राजस्थान के अनूठे लोक जीवन की रंग बिरंगी संस्कृति के द्योतक लहरिया पर कई लोकगीत भी बने है।
Chunri
हमारी संस्कृति के परिचायक कई रीति रिवाज हैं जो यह बताते है कि हमारे परिवारों में बहू-बेटियों की मान मनुहार के अर्थ कितने गहरे हैंसावन के महीने में तीज के मौके पर मायके या ससुराल में बहू-बेटियों को लहरिया ला देने की परंपरा भी इसी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा रही है और आज भी है यह त्योंहार यह बताने का अवसर है कि बहू-बेटियों के जीवन का सतरंगी उल्लास ही हमारे घर आंगन का इंद्रधनुष है।
जहाँ एक ओर किसी भी देश के निवासियों का रहन - सहन तत्क्षेत्रिय जलवायु तथा परम्परा से प्रभावित होता है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न वर्गों में भी रहन - सहन, खान - पान, वेश -भूषा में येन - केन - प्रकारेण विवधता पाई जाती है। व्यवसाय एवं काम - काज की व्यस्तता से भी वसन , भोजन आदि में असमानता आती है। अभिजात्य वर्ग अपनी वेश - भूषा तथा खान - पान के विषय में सतर्क रहता है, जबकि जन - साधारण इन पर विशेष धयान नहीं देता। उच्च वर्ग में अच्छा पहनावा और चटक - मटक के आभूषण प्रतिष्ठा - सूचक माने जाते हैं, इनमें अवसर के अनिरुप परिवर्तन तथा परिवर्धन अपेक्षित रहता है। समाज का जन मानस विशेषत: अपनी वेश - भूषा तथा खान - पान में एकरुपता रखता है। ऐसे थोड़े ही अवसर आते हैं जब हम उसके रहन - सहन में न्यूनाधिक अन्तर देखते हैं। अन्तत: जीवनक्रम में एक वर्ग से दूसरे वर्ग में परम्परा बन जाती है जो हमारी संस्कृति का एक अनूठा पक्ष हैं।

परिधान (Garment)

भोजन की ही भाँति परिधान भी जीवन - क्रम का एक अति महत्वपूर्ण अंग है। विभिन्न क्षेत्रों के निवासियों की वेश - भूषा तत्क्षेत्रीय जलवायु और उपलब्ध पदार्थों से सम्बन्धित होती है। वह संस्कृति का भी द्योतक है, क्योंकि उसमें एकरुपता और मौलिकता के ऐसे तत्वों का समावेश था जो कि विदेशी सम्पर्क या आदान - प्रदान की प्रक्रिया की संभावना बने रहने पर भी उसके मूल तत्व नष्ट नहीं होते। या यूँ कहें कि उनके सुदृढ़ प्रारुप ने बाह्य प्रभावों को अपने रंग में सराबोर कर दिया। राजस्थान की वेश - भूषा का सांस्कृतिक पक्ष इतना प्रबल है कि सदियों के गुजर जाने पर और विदेशी प्रभाव होते रहने पर भी यहाँ की वेश - भूषा अपनी विशेषताओं को स्थिर रखने में सफल रही है।

पुरुष परिधान (Men's clothing)

कालीबंगा और आहड़ सभ्यता के युग से ही राजस्थान में सूती वस्रों का प्रयोग मिलता है। रुई कातने के चक्र और तकली लोग रुई के वस्रों का प्रयोग करते थे। साधारण लोग अधोवस्र (धोती) तथा उत्तरीय वस्र, जो कंधे के ऊपर से होकर दाहिने हाथ के नीचे से जाता था, प्रयुक्त करते थे। इन वस्रों के उपयोग की यह सारी परिपाटी आज भी राजस्थान के प्रत्येक गाँव में देखी जा सकती है जहाँ बहुधा धोती ऊपर ओढ़ने के "पछेवड़े" के सिवाय अन्य वस्रों का प्रयोग कम किया जाता है। सर्दी में अंगरखी का पहनना भी प्राचीन परम्परा के अनुकूल है जिसमें कपड़े के बटन आगे से बंद करने की "कसें" होती हैं जो बंधन का सीधा - सादा ढ़ंग है।
पुरुषों में छपे हुए तथा काम वाले वस्रों को पहनने का चाव था। सिर पर गोलाकार मोटी पगड़ी पल्लों को लटका कर पहनी जाती थी। धोती घुटने तक और अंगरखी जाँधों तक होती थी। किसान श्रमिक केवल लंगोटी के ढ़ंग की ऊँची बाँधवाली धोती और चादर काम में लाते थे। व्यापारियों में धोती, लंबा अंगरखा, पहनने का रिवाज था।
राजस्थान में चित्रित कई कल्पसूत्र वहाँ के साधारण व्यक्ति से लेकर राजा - महाराजाओं के परिधानों को इंगित करते हैं। इनमें राजाओं के मुकुट और पल्ले वाली पगड़ियाँ, दुपट्टे, कसीदा की गई धोतियाँ और मोटे अंगरखे बड़े रोचक प्रतीत होते हैं।
पगड़ियों में कई शैलियो की पगड़ियाँ देखने को मिलती हैं जिनमें अटपटी, अमरशाही, उदेहशाही, खंजरशाही, शाहजहाँशाही मुख्य हैं। विविध पेशे के लोगों में पगड़ी के पेंच और आकार में परिवर्तन आता जो प्रत्येत व्यक्ति की जाति का बोधक होता था। सुनार आँटे वाली पगड़ी पहनते थे तो बनजारे मोटी पट्टेदार पगड़ी काम में लाते थे। ॠतु के अनुकूल रंगीन पगड़ियाँ पहनने का रिवाज था। मोठड़े की पगड़ी विवाहोत्सव पर पहनी जाती थी तो लहरिया श्रावण में चाव से काम में लाया जाता था। दशहरे के अवसर पर मदील बाँधी जाती थी। फूल - पत्ती की छपाई वाली पगड़ी होली पर काम में लाते थे। पगड़ी को चमकीला बनाने के लिए तुर्रे, सरपेच, बालाबन्दी , धुगधुगी, गोसपेच, पछेवड़ी, लटकन, फतेपेच आदि का प्रयोग होता था। ये पगड़ियाँ प्राय: तंजेब, डोरिया और मलमल की होती थीं। चीरा और फेंटा भी उच्च वर्ग के लोग बाँधते थे। वस्रों में पगड़ी का महत्वपूर्ण स्थान था। अपने गौरव की रक्षा के लिए आज भी राजस्थान में यह कहावत प्रचलित है कि "पगड़ी की लाज रखना" इसी तरह पगड़ी को उतार कर फेंक देना यहाँ अपमान का सूचक माना जाता है। अत: आज भी प्राचीन संस्कृति के वाहक नंगे सिर घर के बाहर कभी नहीं निकलते। इसी तरह पगड़ी को ढ़ँग से बाँधकर बाहर निकलना शिष्टता के अन्तर्गत आता है। राजस्थान में इसका प्रयोग धूप - ताप से सिर की रक्षा के साथ - साथ व्यक्ति की सामाजिक स्थिति और धार्मिक भावना को व्यक्त करने के लिए भी किया जाता है। राजस्थानी नरेशों और मुगलों (शासकों) के बीच होने वाले आदान - प्रदान में पगड़ी का मुख्य स्थान था। आज भी राजस्थान में पगड़ी द्वारा विवाहादि में सम्मान देने की व्यवस्था है।
पगड़ी की भाँति "अंगरक्षी" जो साधारण लोग भी पहनते थे; में समयानुकूल परिवर्तन आया और उसे विविध नामों से पुकारा जाने लगा। यह परिवर्तन भी मुगलों के दरबार से आदान - प्रदान का ही परिणाम था। "अंगरक्षी" को विविध ढ़ंग से तथा आकार से बनाया जाने लगा जिन्हें तनसुख, दुतई, गाबा, गदर, मिरजाई, डोढी, कानो, डगला आदि कहते थे। सर्दी के मौसम में इनमें रुई भी डाली जाती थी। इनको चमकीला बनाने के लिए इन पर गोटा - किनारी कसीदे तथा छपाई का भी प्रयोग होता था। अनेक प्रकार के रंगीन कपड़ों से इन्हें बनाया जाता था। ये कुछ घुटने तक और कुछ घुटने के नीचे तक घेरदार होते थे। कुछ वस्त्र चुस्त और कुछ ढ़ीले सीये जाते थे। इन वस्रों पर गोट लगाकर अलंकृत करने की परम्परा थी। जाली के वस्त्र गर्मियों में पहनते थे। मलमल की पोशाक शरीर की झलक दिखाने में आकर्षक लगती थी जिसे धनी व्यक्ति पहनते थे। वक्ष - स्थल के कुछ भाग को खुला रखा जाता था जो शिष्टाचार के विरुद्ध नहीं समझा जाता था। रंग - बिरंगे फूँदनों से इन परिधानों को बाँधना अच्छा समझा जाता था। रुमाल भी रंग - बिरंगे तथा कसीदे या छपाई वाले होते थे जिन्हें गले में बाँधा जाता था। कटिबन्ध भी अनेक प्रकार की लम्बाई - चौड़ाई के होते थे जो लगभग फूट से लेकर १० हाथ लम्बे एवं एक फूट चौड़े होते थे। इनमें कटार, बरछा, तथा कभी - कभी खाद्य सामग्री तथा रुपये - पैसे रख दिए जाते थे। कंधों पर शरद ॠतु में खेस, शाल, पामड़ी डाल दिये जाते थे। इन पर भी कलावस्तु एवं कसीदे का काम रहता था।

स्त्री परिधान (Womens Clothing) 

प्रागैतिहासिक युग काल में स्रियाँ केवल अधोभाग को ढ़ँकने के लिए छोटी साड़ी का प्रयोग करती थीं। राजस्थान ने इस प्रकार के पहनावे में कुछ परिवर्तन किया इनमें स्रियाँ साड़ी को कर्धनी से बाँधती थीं और ऊपर तक सिर को ढ्ँकती थीं। स्तनों को कपड़े से ढ़ँक कर उसे पीठ से बाँध लिया करती थीं। कई स्त्री वेश - भूषा को स्पष्ट करती हैं जिनमें ओढ़नी से सिर ढ़ँका मिलता है और साड़ी घुटने तक चली जाती है। आगे चलकर स्त्री परिधान में साड़ी को नीचे तक लटकाकर ऊपर कंधों तक ले जाया जाता था और स्तनों को छोटी कंचुकी से ढ़ँका जाता था। राजस्थान में स्रियाँ प्राय: लहँगे का प्रयोग करने लगीं जो "घाघरा" के नाम से प्रसिद्ध है। स्रियों की वेश - भूषा में अलंकरण, छपाई और कसीदे का काम भी पूर्व मध्यकाल में प्रचलित हो गया था। स्रियों के परिधान में साड़ी, ओढनी, लहँगा तथा कंचुकी या चोली सम्मिलित हैं। साड़ी पहनने तथा सिर को ओढ़नी से ढ़ँकने तथा कपड़ों की सजावट में मूल स्थानीय तत्व हैं और बाह्य से कुछ विदेशी प्रभाव भी हैं।

Odhani
Odhani
Design on clothes
 
 












ज्यों - ज्यों समय बीतते जाता है, कंचुकी तथा काँचली का स्वरुप बदल जाता है और वह लम्बी आस्तीनों वाली उदर के नीचे तक बढ़ जाती है जिसे कुर्ती कहते हैं। इनमें तंजेब, कसीदा, गोटा - किनारी, मगजी, गोट आदि का काम रहता है। कुछ चमकीले वस्र की और कुछ छपाई रंगाई की कंचुकियाँ होती हैं। आज भी मारवाड़ में ऐसी लंबी कुर्तियों का खूब प्रचलन है। ओढ़नियों के पल्लु कई डिजायन के बनते थे जिनको दोनों ओर कंधे से लटकाया जाता था। कुछ सती स्तम्भों में उत्कीर्ण मूर्तियाँ एक लंबी साड़ी में देखी जाती हैं जो नीचे से ऊपर तक शरीर को ढ़ँकती हैं। ऐसी साड़ियाँ घूँघट निकालने में सुविधाजनक रहती हैं। आज भी राजस्थान मे घूँघट का रिवाज प्रचलित है। अधोवस्र प्रारम्भ में कमर से लपेटा जाता था जो परिवर्किद्धत होकर घाघरा तथा घेरदार कलियों का घाघरा बन गया। इसका छोटा रुप लहंगा कहलाता है। इन तीनों प्रकार के परिधानों पर सुनहरी रुपहरी छपाई होती ती जिसे गोटा - किनारा तथा सलमे के काम से आकर्षक बनाया जाता था। राजस्थान में आज भी कपड़ों पर इस प्रकार का काम बड़ी कारीगरी से होता है। साड़ियों के विविध नाम प्रचलित थे जिन्हें चोल, निचोल, पट, दुकूल, अंसुक, वसन, चीर - पटोरी, चोरसो, ओड़नी, चूँदड़ी, धोरीवाला, साड़ी आदि कहते हैं।
स्रियों के परिधानों के लिए प्रचलित कपड़ों में जामदानी, किमखाब, टसर, छींट मलमल, मखमल, पारचा, मसरु, चिक, इलायची, महमूदी चिक, मीर - - बादला, नौरंगशाही, बहादुरशाही, फरुखशाही छींट, बाफ्टा, मोमजामा, गंगाजली, आदि प्रमुख थे। उच्चवर्गीय स्रियाँ अपने चयन में इन कपड़ों को वरीयता देती थीं, परन्तु साधारण वर्ग की स्रियाँ लट्ठे छींट के वस्रों से ही संतोष कर लेती थीं। ॠतु और अवसरानुकूल रंग - बिरंगे चटकीले परिधानों के चाव स्रियों में अवश्य था जो अपनी - अपनी हैसियत के अनुसार बढिया और घटिया कि के कपड़े बनवाते थे। चूँदड़ी और लहरिया राजस्थान की प्रमुख साड़ी रही है जिसका प्रयोग हर स्तर की स्रियाँ आज भी करती हैं - गोया उच्चवर्ग में आधुनिक कपड़े अधिक प्रिय हो रहे हैं।

केश - विन्यास
केशों को जूड़े वेणियों द्वारा प्रसाधित किया जाता था। इनमें पुष्प, पत्तियों एवं मोतियों की लड़ी से सुसज्जित करना शोभनीय माना जाता था। केशों की अग्रभाग की पट्टियों को कड़ा रखने के लिए गोंद और "घासा" नामक लेप का प्रयोग होता था, जिससे उनमें एक चमक दिखाई देती थी। अभिजातवर्ग की स्रियों के केश विन्यास का काम सेविकाएँ करती थीं। केशों को लम्बा बढ़ाना अच्छा समझा जाता था और उनमें कई प्रकार के सुगन्धित तेल ड़ालकर सुरभित किया जाता था। जहाँ प्रसाधन की विशेष प्रकार की सामग्री साधारण वर्ग की स्रियों के लिए उपलब्ध नहीं थी वहाँ सादा वेणी बनाना विवाहित स्रियों के लिए अनिवार्य था, क्योंकी इसमें धार्मिक भावना निहित रहती थी। राजस्थान में खुले केशों से बाहर निकलना स्रियों के लिए अशोभनीय माना जाता रहा है।

स्त्री आभूषण (Lady jewelry)

राजस्थान का प्राचीनकालीन मानव सौन्दर्य - प्रेमी रहा है। शरीर को सुन्दर और आकर्षक बनाने के लिए विशेष रुप से स्रियाँ अनेक प्रकार आभूषणों को प्रयोग करती थीं। स्रियाँ हाथों में चूड़ियाँ कड़े, पैरों में खड़वे और गले में लटकने वाले हार पहनती थीं। स्रियाँ सोने, चाँदी, मोती और रत्न के आभूषणों में रुचि रखती थीं। साधारण स्तर की स्रियाँ काँसे, पीतल, ताँबा, कौड़ी, सीप अथवा मूँगे के गहनों से ही सन्तोष कर लेती थीं। हाथी दाँत से बने गहनों का भी उपयोग होता था। पाँव में तो पीतल की पिंजणियाँ एडी से लगाकर घुटने के नीचे तक आदिवासी क्षेत्र में देखी जाती हैं। इनके अतिरिक्त वह दो चार लड़ी की हार, जिन्हें राजस्थान में हँसला कहते हैं तथा बाजूबंद, कर्णकुंडल, कर्धनी (कंदोरा) अंगूलयिका, मेखला, केयूर आदि विविध आभूषणों से
Rajasthani Women Jewelry
सुशोभित है। इन आभूषणों का अंकन राजस्थान की पूर्व मध्यकालीन मूर्तिकला में खूब देखने को मिलता है।
मध्यकाल से २०वीं सदी तक आकर अलंकारों के विविध रुप विकसित हो गये। ओसियाँ, नागदा, देलवाड़ा कुंभलगढ़ आदि स्थानों की मूर्तियों में कुंडल, हार, बाजूबन्ध, कंकण, नुपूर, मुद्रिका के अनेक रुप तथा आकार निर्धारित हैं। विशलेषण करने पर एक - एक आभूषण की पच्चीसों डिजाइनें मिलेंगी। ज्यों - ज्यों समय आगे बढ़ता है, इन आभूषणों के रुप और नाम भी स्थानीय विशेषता ले लेते हैं। सिर में बाँधे जानेवाले जेवर को बोर, शीशफूल ,रखड़ी और टिकड़ा नाम पुरालेखों में अंकित हैं। उन्हीं में गले तथा छाती के जेवरों में टेवटा, तुलसी, बजट्टी, हालरो, हाँसली, तिमणियाँ, पोत, चन्द्रहार, कंठमाला, हाँकर, चंपकली, हंसहार, सरी, कंठी, झालरों के तोल और मूल्यों का लेखा है। ये आभूषण सोने, चाँदी, मोती के बनते थे और अनेक रत्नजड़ित होते थे। कानों के आभूषणों में कर्णफूल, पीपलपत्रा, फूलझुमका, तथा अंगोट्या, झेला, लटकन आदि होते थे। हाथों में कड़ा, कंकण, गरी, चाँट, गजरा, चूड़ी तथा उंगलियों में बींटी, दामणा, हथपान, छड़ा, वींछिया तथा पैरों में कड़ा, लंगर पायल, पायजेब, नूपुर, घुँघरु झाँझर, नेवरी आदि पहने जाते थे। नाक को नथ, वारी, काँटा, चूनी, टोप आदि से सुसज्जित किया जाता था। कमर में कंदोरा और कर्धनी का प्रयोग होता था। जूड़े में बहुमूल्य रत्न या चाँदी - सोने की घूँघरियाँ लटकाई जाती थीं।
इन सभी आभूषणों को साधारण स्तर की स्रियाँ भी पहनती थीं, केवल अंतर था तो धातु का। इनकी विविधता शिल्प की दरबारी प्रभाव का परिणाम था। आज भी राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में आभूषणों के प्रति प्रेम है जिसके कारण इनके शिल्पी सर्वत्र फैले हुए हैं। इसी वर्ग के शिल्पी रत्नों के जड़ने तथा बारीकी का काम करने में नगरों में पाये जाते हैं। एक प्रकार से राजस्थान की भौतिक संस्कृति को आभूषणों के निर्माण- क्रम और वैविद्धय द्वारा आँका जा सकता है।

आमोद - प्रमोद
जिस प्रकार भारतीय समाज में प्राचीनकाल से आमोद - प्रमोद का विशिष्ट स्थान रहा है, उसी प्रकार से राजस्थान में भी प्रत्येक युग में उसका महत्व देखा गया है। विविध आयोजनों में गीत - संगीत को प्रधानता दी जाती थी जिनमें स्त्री - पुरुष समान रुप से भाग लेते थे।
मध्यकाल तक आते - आते समाज में अनेक प्रकार की मनोविनोद सम्बन्धी क्रीडाओं का प्रचलन हो गया।
पतंगबाजी भी मध्यकाल से अति लोकप्रिय मनोरंजन का साधन रहा है। दिल्ली में सम्भवत: मुगल बादशाहों के समय से इसका आरम्भ हुआ। राजस्थान में पहले प्राय: "आकाश दीपकों" को उड़ाने की प्रथा थी जो मनोरंजन का धार्मिक एवं सामाजिक पक्ष था। मुगल सम्पर्क से पतंग के उड़ाने में कई परिवर्तन आये और जयपुर इस शौक का गढ़ बन गया। अन्त: पुर में भी इसे उड़ाया जाता था जिसमें केवल महिलाएँ भाग लेती थीं। जयपुर में आज भी बालक से लेकर बूढ़े तक पतंग उड़ाते हैं। राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में भी इसका महत्व है। पतंग उड़ाने की धार्मिक परम्परा यह है कि जयपुर में इसे संक्रान्ति के पर्व पर उड़ाया जाता है। नवविवाहित पति - पत्नी पतंग का पूजन कर उड़ाते हैं और घर की प्रथम पतंग पूजनोपरान्त घर का मुखिया उड़ाता है। यह प्रथा जयपुर में व्यापक रुप में देखी गई है।
व्यवसायी लोग भी नगर - नगर और गांव - गाँव घूमकर प्रजागण का मनोरंजन करते हैं जिनमें सपेरे, मदारी, जादूगर, नट, भाण्ड आदि मुख्य हैं। ये कहीं चौक या चौराहों और गलियों में अपना तमाशा दिखाते हैं और इनके इर्द - गिर्द आसपास के बच्चे स्रियाँ जमा हो जाते हैं और इनके खेल को बड़ी रुचि से देखते हैं।
चौपड़, चौसर आदि कपड़े के बने बिसात पर खेला जाता रहा है जिसे पति - पत्नी या कोई चार या दो व्यक्ति खेलते हैं। इसमें पासों से या कौड़ियों को फेंक कर गोटियों को पीटा जाता है और इसी से हार - जीत का निर्णय होता है। ताश, गंजीफा, चरभर, नार - छारी और ज्ञान - चोपड़ भी लोकप्रिय खेल हैं जिन्हें विश्राम में खेला जाता है। खिलाड़ी बारी - बारी से अपना पत्ता चलते हैं और ताश या गंजीफे में तुरप से निर्णय होता है। चरभर, नार - छारी और ज्ञान - चोपड़ कौड़ियों से या इमली के बीजों की बित्तुओं से अथवा विविध रंग के पत्थरों से खेला जाता है। ज्ञान - चौपड़ की विशिष्ट बिसात होती है और हार - जीत, पाप - पुण्य के कोष्ठकों पर चाल चलकर तय की जाती है।
ये खेल मुक्त: मनोरंजन के साधन हैं प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को आपस में मिलने - जुलने का अवसर मिलता है। खेल - कूद में जात - पाँत का भेद - भाव नहीं रहता जो समाज में सामञ्जस्य एवं सद्भाव उत्पन्न करने का अच्छा अवसर प्रदान करता है। ऊपर वर्णित कई खेल प्राचीनकाल से चले आये हैं जिनमें एक विशुद्ध परम्परा दिखाई पड़ती है। कई खेलों का सम्बन्ध धार्मिक पर्वों और उत्सवों के साथ इतना जुड़ा है कि समाज में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सतत् उनका सांस्कृतिक धरोहर के रुप में माना जाता है। कई मनोरंजन के साधन राष्ट्रीय स्तर के या सार्वजनिक होने से देश में राष्ट्रीयता को बल देते हैं। ये खेल - कूद के साधन अपने ढंग से जन -जीवन को एकसूत्र में बाँधकर सांस्कृतिक जीवन में रोचकता का संचार करते हैं। आमोद - प्रमोद की विविधता धार्मिक और सामाजिक विचारधारा में सम्नवय की भावना को पुष्ट बनाती है। राजस्थान में आज भी ऐसे खेल गाँवों में खेले जाते हैं - जैसे, गेंद फेंकना या मारना, झूलना, काठ की गुड़िया से खेलना आदि जिनका वर्णन वेदों में, पुराणों और प्राचीन साहित्य के ग्रन्थों में मिलता है। पशु - युद्ध, मल्ल - युद्ध तथा मृग्या जैसे मनोरंजन के साधन राजस्थान में प्राचीनकाल से प्रचलित रहे हैं जिनके द्वारा एक युग से दूसरे युग में शौर्य और पुरुषार्थ को बढ़ावा मिला है। ये साधन समाज को कठिन परिश्रम के उपरान्त विश्राम भी देते हैं और व्यक्तियों को सर्वदा स्वस्थ और स्फूर्तिवान बनाये रखते हैं। राजस्थान सरकार इस दिशा में पूर्ण प्रयत्नशील है जिससे लौकिक मनोरंजन के साधन प्राणवान बने रहें
राजस्थान के लोगों का पहनावा रंग-रगीला है। रेत और पहाड़ियों के सुस्त रंगों के बीच चमकीले रंगों की पोशाक राजस्थान के लोगों को जीवंत बनाती है। सिर से लेकर पांव तक, पगड़ी, कपड़े, गहने और यहां तक कि जूते भी राजस्थान की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को दर्शाते हैं। सदियों बीत जाने के बाद भी यहां की वेशभूषा अपनी पहचान बनाये हुए है। राजस्थान की जीवन शैली के आधार पर अलग-अलग वर्ग के लोगों के लिए अलग-अलग परिधान के अंतर्गत पगड़ी यहां के लोगों की शान और मान का प्रतीक है। यहां के लोग 1000 से भी अधिक प्रकार से पगड़ी बांधते हैं। कहा जाता है कि यहां हर 1 किमी. से पगड़ी बांधने का तरीका बदल जाता है। पुरुष पोशाक में पगड़ी, अंगरखा, धोती या पजामा, कमरबंद या पटका शामिल है और महिलाओं की पोशाक में घाघरा, जिसे लंबी स्कर्ट भी कहते हैं, कुर्ती या चोली और ओढ़नी शामिल हैं। घाघरे की लंबाई थोड़ी छोटी होती है ताकि पांव में पहने गहने दिखायी दे सकें और ओढ़नी घूंघट करने के काम आती है।
ऊंट, बकरी और भेड़ की खाल से बने जूते पुरुष और महिलाओं के जरिये पहने जाते हैं। मखमल या जरी के ऊपर कढ़ाई कर के जूते के बाहरी भाग पर चिपकाया जाता है। जैसलमेर, जोधपुर, रामजीपुरा और जयपुर की जूतियां पूरी दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं।

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