प्राचीनकाल में राजस्थानी भोजन प्राकृतिक वस्तुओं पर आधारित थे, तब लोग आग के प्रयोग से अनभिज्ञ थे। नित अपने अनुभवों के आधार पर कन्द, मूल, फल, माँस तथा वन में उपजने वाली अन्य वस्तुएँ, जो शरीर के लिए अनुकूल पड़ती थीं खाते थे। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व भोज्य पदार्थों में यव, गेहूँ, चावल, माँस, दूध आदि प्रचलित हुए जिन्हें आमिष और निरामिष भोजन करने वाले प्रयोग में लाते थे। पशुओं के माँस का प्रयोग भी खूब होता था, जिसकी प्रमाणिकता प्राचीन खण्डहरों से प्राप्त प्रस्तर देते हैं। समय के प्रवाह के साथ - साथ आहारिक एवँ माँसादि पदार्थों के बनाने की विधियों में विविधता आती गयी। उत्पादन में भी अनेक प्रयोग किये गये जिससे धान्य, दालें, पेय पदार्थ आदि में वृद्धि होती हैं।
शिलालेखों तथा साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त प्रमाणों के अनुसार भोजन के सम्बन्ध में लगभग १०वीं शताब्दी तक राजस्थान का निवासी सादा तथा मर्यादित था। साधारण वर्ग तथा उच्च वर्ग के खाद्य तथा पेय पदार्थों के स्तर में बहुत बड़ा अन्तर नहीं था। रोटी, दाल, राबड़ी, तेल, दही, दूध, घी, लापसी, मट्ठा, घाट, गुड़, घूघरी, खिचड़ी, आदि सभी की भोज्य सामग्री थी। माँसाहार भी प्रचलित था, परन्तु ज्यों - ज्यों अन्नोत्पादन में वृद्धि होती गयी, माँस का प्रयोग घटता गया। उच्च वर्ग तथा वन में रहने वालों के अलावा कृषिजीवी तथा नगर निवासियों में माँस भोजन का उतना प्रचलन नहीं था। ब्राह्मणों और जैनों में माँस का प्रयोग निषिद्ध था। इन्हें भोजन की शुद्धता और निर्मलता पर अधिक ध्यान देना होता था। उत्सवों तथा पर्वों पर अनेक मिष्ठान्नों का प्रयोग होता था। मोदक, पूये, हलुवा, खीर, तिलकुट, पूड़ी, पापड़, दहीबड़े आदि मुख्य का जिक्र मानसोल्लास में मिलता है जिससे खाद्य - पदार्थों में रस और रुचि का संवर्धन होता था। इन व्यंजनों के भी अनेक प्रकार बताये हैं जिन्हें तेल, घी और लोंग एवं अनेक मसालों से मिक्षित कर स्वादिष्ट बनाया जाता था। उच्च वर्ग तथा मध्यम वर्ग के लोगों में उनका अधिकाधिक उपयोग होता था।
मध्ययुग में भी खान - पान की वही प्राचीन परम्परा राजस्थान में प्रचलित थी और विशेष रुप से साधारण स्तर के लोगों में राबड़ी, रोटी, दाल, छाछ आदि का ही प्रचलन होता था। परन्तु उच्च स्तर के समाज में गेहूँ, चना और दालों से अनेक खाद्य वस्तुएँ बनती थीं जिनमें हलुवा, फैनी, घेवर खाजा तथा लड्डू प्रमुख थे। मोदक के भी अनेक प्रकार थे जो दूध, मावा, आदि से बनाते थे और उनका नाम भी उनके अनुकूल होते थे। जैसे दही से बनने वाले दधि - मोदक, केसर के प्रयोग से बनने वाले केसर - मोदक, बीजों से बनने वाले बीज - मोदक आदि। अचार जो फलों व सब्जियों को कस कर बनाये जाते थे। चावल को भी दाल, दूध, घी व शक्कर के साथ खाया जाता था। इस प्रकार गेहूँ व चावल से कई प्रकार के मिष्ठान्न बनते थे जो विवाहोत्सव पर प्रचलित थे। राजस्थान में भोजन के अन्त में मट्ठे का प्रयोग प्राय: होता था जो आज भी प्रचलित है।
मध्ययुग में राजपूत समाज अग्रणी था, जिसमें आखेट एक मनोरंजन का एक साधन बन चुका था। इससे प्राप्त पशुओं के माँस को एक शौर्य द्योतक प्रतीक माना जाता था जिसे बड़े चाव से खाया जाता था। प्याज, अदरख, नींबू, लहसुन आदि प्रयुक्त मसाले माँसाहारियों के चाव की चीज होती थी जिन्हें साधारण स्तर के माँसभोजी भी काम में लाते थे। अकबरी जलेबी, खुरासानी खिचड़ी, बाबर बड़ी, पकोड़ी और मूँगोड़ी का प्रचलन मुगली प्रभाव से राजस्थान में खूब पनपा जिनका प्रयोग माँसाहारी और शाकाहारी बड़े चाव से करते थे। भोजन के सम्बन्ध में समन्वय की प्रकिया राजस्थान में खूब देखी जाती है।
राजस्थानी समाज में भोजन की विधि में अत्यन्त पवित्रता, शुद्धता और संयम का बड़ा महत्व रहा है। भोजन के पूर्व स्नान करना अथवा हाथ, मुँह व पैर धोना आवश्यक था। ब्राह्मण तो भोजन के पूर्व स्नान कर चौके में भोजन करते थे। अपने हाथ से पकाया हुआ भोजन विशेष शुद्ध माना जाता था। समृद्ध परिवारों में चाँदी और सोने से मढ़े चौकटे भोजन परोसने के लिए रखे जाते थे जिन पर चाँदी की थाली व कटोरे होते थे। साधारण लोग पत्तल, दोने व पीतल व काँसे के थालों का प्रयोग करते थे। मिट्टी व काठ के बर्तनों का प्रयोग भोजन में एक बार ही माना गया है, परन्तु ग्रामीण भोजन बनाने में मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग आज भी खूब करते हैं जो कि यहाँ के प्राचीन परम्परा के अनुरुप है।
भोजन के उपरान्त राजस्थान में समृद्ध लोग पान चबाते हैं जिनमें खैर, चूना, सुपारी के अतिरिक्त सुगंधित द्रव्य भी मिलाते हैं। पान को उपहार के रुप में देना सम्मानसूचक है। देशीनाममाला में कहा गया है कि ताँबूल तैयार करना और उनका वितरण करना बहुधा दासियाँ करती थीं। राजा - महाराजाओं तथा रानियों के दरबारों में होली, दीपावली तथा अन्य अवसरों पर पान के बीड़े वितरित होते थे और उनके आगंतुकों को सम्मानित किया जाता था। प्राचीन परम्परा के अनुसार पान आज भी इतना व्यापक है कि इसका प्रयोग साधारण से साधारण व्यक्ति भी करता हैं।
टमाटर की लून्जी, लहसून की चटनी, इमली की चटनी आम लून्जी और पुदीना चटनी तांग आवश्यक एक नरम भोजन देने और उत्कृष्ट पाचन गुण है। मूंग की दाल पापड़, मसाला पापड़, मंगोड़ियाँ, पकौड़ियाँ और बड़ियाँ कई व्यंजनों में सब्जियों का उपयोग किया जाता है। अचार और राजस्थान की चटनी प्रसिद्ध रहे हैं।
पारंपरिक राजस्थानी रसोई ऐसे ओवन, बर्नर और यहां तक कि रसोई गैस के रूप में आधुनिक सुविधाओं से रहित है। ओवन अक्सर कोयला या ऊंट गोबर के सूखे केक पर जलता है कि एक ईंट और मिट्टी चूल्हा है। रोटी आदि प्रत्यक्ष आंच पर पकाया जाता है और इस चिकित्सीय माना जा रहा है। भारी पीतल के बर्तन और (जैसे कढ़ाई, तवा और हांडी के रूप में) मोटी तली बर्तन सबसे अच्छा खाना पकाने की शैली की सेवा। मोर्टार और मूसल पीसने के लिए और लकड़ी के चम्मच बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है ।
राजस्थानी खाना मूलत: शाकाहारी भोजन होता है और यह अपने स्वाद के कारण सारे विश्व में प्रसिद्ध हो गया है। अपनी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण पारंपरिक राजस्थानी खाने में बेसन, दाल, मठा, दही, सूखे मसाले, सूखे मेवे, घी, दूध का अधिकाधिक प्रयोग होता है। हरी सब्जियों की तात्कालिक अनुपलब्धता के कारण पारंपरिक राजस्थानी खाने में इनका प्रयोग कम ही रहा है।
राजस्थान का मुख्य भोजन बाजरा और गेंहूँ है। गांव परिवार के लिए प्रमुख भोजन रोटी और करी नामक एक दही करी के साथ परोसा जाता है। दलिया जो सूखे सेम से मिलकर बनता है उसे सब्जियों और ताजा उपज के साथ रात के खाने में खाया जाता हैं। सबसे अधिक परिवारों के लिए, नाश्ता गर्म चाय का एक गिलास बासी रोटी के साथ करते है और दोपहर के भोजन में ज्यादातर मिर्च और लहसून की मसालेदार चटनी के साथ खाया जाता है। चिकन मांस के लिए गांवों वे पीछे मुर्गियों में। हालांकि, सबसे भोजन शाकाहारी हैं, और वे मांस खाते हैं, हालांकि, राजपूतों इसे नियमित रूप से उपभोग नहीं करते। अदिकांश गाँवों में भोजन शाकाहारी करते हैं। लेकिन कुछ समुदायों में विवाह, उत्सव और समारोह में ही माँसाहारी भोजन खाया जाता हैं।
राजस्थान में भोजन वहां की जलवायु के आधार पर अलग-अलग प्रकार से बनता है। पानी और हरी सब्जियों की कमी होने की वजह से राजस्थानी व्यंजनों की अपनी एक अलग ही शैली है। राजस्थानी व्यंजनों को इस तरह से पकाते हैं कि वो लंबे समय तक खराब नहीं होते तथा इन्हें गरम करने की आवश्यकता भी नहीं होती। रेगिस्तानी जगहों जैसे - जैसलमेर, बाड़मेर और बीकानेर में दूध, छाछ और मक्खन पानी के स्थान पर प्रयोग किया जाता है। राजस्थान में अधिकतर खाना शुद़्ध घी से तैयार किया जाता है। यहां पर दाल-बाटी-चूरमा बेहद मशहूर है। जोधपुर की मावा कचौड़ी, जयपुर का घेवर, अलवर की कलाकंद और पुष्कर का मालपुआ, बीकानेर के रसगुल्ले, नमकीन भुजिया, दाल का हलवा, गाजर का हलवा, जलेबी और रबड़ी विशेष रूप से प्रसिद्ध है। भोजन के बाद पान खाना भी यहां की परंपरा में शुमार है।
मुख्यत: निम्न राजस्थानी खाने अधिक प्रचलित हैं।
दाल बाटी चूरमा (Dal Bati Churma)
दाल बाटी चूरमा एक राजस्थानी व्यंजन है । बाटी मोटे गेहू के आटे से बनाई जाती है। चूरमा मीठे आटे का मिश्रण होता है। यह एक धार्मिक अवसरों, गोठ, विवाह समारोहों और राजस्थान में जन्मदिन पार्टियों भी बनाई जाती है। दाल बाटी चूरमा आमतौर पर दोपहर के भोजन के समय या खाने के समय के दौरान या तो सेवा है.अधिक घी का स्वाद इसे और भी बेहतर स्वाद बना देता है। जोधपुर ,जयपुर और जैसलमेर के शहर इस राजस्थानी पकवान के लिए प्रसिद्ध हैं। दाल, बाटी, चूरमा उत्तम राजस्थान विशेषता के रूप में जाना जाता है एक राजस्थानी खाना है.या अधिक मसाला राजस्थानी खाने की विशेषता है। चूरमा में एक अंतहीन विविधता है रंग जो सामग्री पर निर्भर करता है और एक आश्चर्यजनक विविधता है जिनमें से कई एक साथ परोसा जा सकता है, रोटी के साथ जो इसे फिर से गेहूं या मक्का या बाजरा से मिलकर बनाया जाता है।
बाटी के लिये सामग्री
आटा –चार कप
बेसन –एक कप
घी –एक कप
दही –आधा कप
अजवाइन –एक छोटा चम्मच
नमक –स्वादानुसार
विधि
आटे में दही, बेसन, घी, अजवाइन तथा जरूरत के अनुसार पानी डाल कर नरम गूंध लें नींबू के आकार की गोलियाँ बना लें .ढक कर एक घंटे के लिए रख दें गर्म कोयले पर बारी बारी से सुनहरा होने तक सेक ले फिर गर्म घी में डाल कर रखें
सामग्री, दाल के लिए
मूंग की छिलके वाली दाल –सौ ग्राम
चना दाल –पचास ग्राम
अरहर दाल –पचास ग्राम
उडद दाल –पचास ग्राम
प्याज बारीक़ कटी –एक
टमाटर बारीक़ कटा –एक
हर धनिया –थोडा सा
घी –दो छोटा चम्मच
हल्दी –आधा छोटा चम्मच
गर्म मसाला –आधा छोटा चम्मच
लाल मिर्च –एक बड़ा चम्मच
लहसुन अदरक का पेस्ट –एक छोटा चम्मच
हींग –चुटकी भर
नीबू –एक
बनाने की विधि
सभी दाले एक साथ उबाल कर रख लें .एक पतीली में दो चम्मच घी डाल कर जीरा, तेज पत्ता और चुटकी भर हींग डालें .प्याज तथा अदरक लहसुन का पेस्ट डाल कर भूरा होने तक भून लें टमाटर डाल कर थोड़ी देर पकाएं .फिर सभी मसाले, दाल तथा नमक डाल कर रस गढा होने तक पकाएं दाल को हरे धनिया से सजाएं नीबू निचोड़ दें। खाते समय गर्म बाटी को दाल में डुबो कर खाएं।
चूरमा
चूरमा जिसे चूरमा के लडडू भी कहा जाता है, राजस्थान की सर्वाधिक लोकप्रिय मिठाई है। सामान्यतः इसे दाल बाटी के साथ परोसा जाता है। चूरमा राजस्थान के हर त्यौहार्, शादी ब्याह, या सामूहिक भोज में परोसा जाता है।
सामान्यतः इसे मोटे आटे से बनी, बिना नमक की बाटी से बनाया जाता है। चूरमा के लडडू बनाने के लिये बाटी को कंडे की आग या भूनने के बजाय, तल कर भी बनाया जाता है। बनी हुई बाटी को फोड़ कर बारीक चूरा बना दिया जाता है और इसमें घी, गुड या चीनी एवं सूखे मेवे मिला कर बड़े साइज के लडडू बना लिये जाते हैं।
घेवर (Ghevar)
घेवर छप्पन भोग के अन्तर्गत प्रसिद्ध व्यंजन हॅ। यह मैदे से बना, मधुमक्खी के छत्ते की तरह दिखाई देने वाला एक ख़स्ता और मीठा पकवान है। सावन माह की बात हो और उसमें घेवर का नाम ना आए तो कुछ अटपटा लगेगा। घेवर, सावन का विशेष मिष्ठान माना जाता है। हालांकि अब घेवर की मांग अन्य मिठाइयों के सामने कुछ कम हुई है लेकिन फिर भी आज कुछ लोग घेवर को ही महत्व देते हैं। सावन में तीज के अवसर पर बहन-बेटियों को सिंदारा देने की परंपरा काफी पुरानी है, इसमें चाहे कितना ही अन्य मिष्ठान रख दिया जाए लेकिन घेवर होना अवश्यक होता है। इसलिए साल के विशेष समय पर बनने वाली इस पारंपरिक मिठाई घेवर का वर्चस्व टूटना संभव नहीं है भले ही आधुनिक मिठाइयों के सामने इसकी लोकप्रियता में कुछ कमी दिखाई देती हो।
सावन में इस मिष्ठान की मांग को पूरा करने के लिए छोटे हलवाई से लेकर प्रतिष्ठित हलवाई महिनों पहले काम शुरु कर देते हैं। घेवर बनाने का काम प्रत्येक गली मौहल्ले में जोर-शोर से शुरू हो जाता है। पुराने लोग बताते हैं कि बगैर घेवर के न रक्षाबंधन का सगन पूरा माना जाता है और न ही तीज का।
घेवर (Ghevar) |
घेवर वैश्वीकरण के दौर में आज घेवर का रूप भी बदलने लगा है, ४० से लेकर २०० रूपये प्रति किलो का घेवर बाजार में उपलब्ध है, जो जैसा दाम लगाता है उसे उसी प्रकार का माल मिल जाता है, सादा घेवर सस्ता है जबकि पिस्ता, बादाम और मावे वाला घेवर मंहगा। पिस्ता बादम और मावे वाला घेवर ज्यादा प्रचलित है, हालांकि लोगों का कहना है कि जितना आनंद सादा घेवर के सेवन में आता है उतना मेवा-घेवर में कतई नहीं। फिर भी लोग मावा-घेवर को ही खरीदना पसंद करते हैं।
कुल मिला कर सावन के महीने में घेवर की खुशबू पूरे बाजार को महका देती है और तीज व रक्षाबंधन के अवसर पर घेवर की दूकानों पर भीड़ देखते ही बनती है। घेवर दो तरह को होता है, फींका और मीठा। ताज़ा घेवर नर्म और ख़स्ता होता है पर यह रखा रखा थोड़ा सख़्त होने लगता है। इस समय फींके घेवर को बेसन लपेटकर तलकर मज़ेदार पकौड़े बनाए जाते हैं। मीठे घेवर की पुडिंग बढ़िया बनती है।
बालूशाही (Balushahi)
बालूशाही (उर्दू: بالوشاھی) एक प्रकार का पकवान है जो मैदा तथा चीनी से बनाया जाता है। बालूशाही मैदा आटे से बनती है और गहरे घी में तली जाती है। तत्पश्चात् उसे चीनी के सिरप में डुबाया जाता है।राजस्थान में बहुत से पकवान बनाये और खाये जाते हैं जिनमे में कुछ नाम निचे दिये गये हैं:-
भुजिया
गोंद का सीरा
सान्गरी की सब्जी
पिटौर की सब्जी
दाल की पूरी
मावा मालपुआ
बीकानेरी रसगुल्ला
लपसी
राबड़ी
मूली की कांजी
गौंदी
पंचकूट
गट्टे की सब्जी
पापड़ की सब्जी
सेंगरी मुंगोडी़
बेसन का हलवा
दाल मगोड़ी की कढ़ी
बेसन के गट्टे
कढ़ी
पिसेड़ी लाल मिर्च
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