हमारा देश एक धर्म प्रधान देश है। धर्म नियंत्रित एवं आस्तिक भाव से परिपूर्ण धर्म भीरू राजस्थान को देव भूमि कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। प्राचीनकाल से ही यह वीर भूमि सर्व धर्म शरणदायनी रही है। इसी कारण सभी पूजा पद्धतियों एवं सम्प्रदाय यहां वैचारिक दृष्टि से फले फूले हैं परन्तु उन सब में परस्पर सहिष्णुता एवं एक-दूसरे के उपास्य देवों के प्रति सहज सम्मान का भाव रहा है। सनातन धर्मी राजस्थानी शासकों ने प्राणीमात्र की सद्भावना की जागृति एवं विश्व कल्याण की मंगल भवना से अभिभूत होकर जनगण की लोक मान्यताओं का सदा सम्मान किया है। इसी कारण यहां सभी पौराणिक एवं वैदिक देवी-देवताओं के मन्दिर पूजित हैं। उनके उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाए जाते हैं। गणगौर का उत्सव भी ऐसा ही लोकोत्सव है, जिसकी पृष्ठ भूमि पौराणिक है।
गणगौर पूजा |
राजस्थान में गणगौर का पर्व लोकोत्सव के रूप में अनादिकाल से मनाया जाता रहा है। कुंवारिया एवं विवाहितायें सभी आयुवर्ग की महिलायें, विवाह का वेश पहन कर इसकी पूजा करती है। होली के दूसरे दिन से सोलह दिनों तक लड़कियाँ नियमपूर्वक प्रतिदिन इसर-गणगौर को पूजती हैं। जिस लड़की की शादी हो जाती है वो शादी के प्रथम वर्ष अपने पीहर जाकर गणगौर की पूजा करती है।
इसी कारण इसे “सुहागपर्व’’ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि चैत्र शुक्ला तृतीया को राजा हिमाचल की पुत्री गौरी का विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ उसी की याद में यह त्यौहार मनाया जाता है। कामदेव मदन की पत्नी रति ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया तथा उन्हीं के तीसरे नेत्र से भष्म हुए अपने पति को पुन: जीवन देने की प्रार्थना की। रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो भगवान शिव ने कामदेव को पुन: जीवित कर दिया तथा विष्णुलोक जाने का वरदान दिया। उसी की स्मृति में प्रतिवर्ष गणगौर का उत्सव मनाया जाता है एवं विवाह के समस्त नेगचार होते हैं।
Girls going to worship Gangaur |
होलिका दहन के दूसरे दिन गणगौर पूजने वाली बालाऐं होली दहन की राख लाकर उसके आठ पिण्ड बनाती हैं एवं आठ पिण्ड गोबर के बनाती हैं तथा उन्हें दूब पर रखकर प्रतिदिन पूजा करती हुई दीवार पर एक काजल व एक रोली की टिकी लगाती हैं।
शीतलाष्टमी तक इन पिण्डों को पूजा जाता है, फिर मिट्टी से ईसर गणगौर की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजती हैं। लड़कियां प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में गणगौर पूजते हुये गाती हैं:-
‘गौर ये गणगोर माता खोल किवाड़ी, छोरी खड़ी है तन पूजण वाली….।’
गीत गाने के बाद लड़कियां गणगौर की कहानी सुनती है। दोपहर को गणगौर के भोग लगाया जाता है तथा गणगोर को कुए से लाकर पानी पिलाया जाता है। लड़कियाँ कुए से ताजा पानी लेकर गीत गाती हुई आती हैं:-
‘ईसरदास बीरा को कांगसियो म्हे मोल लेस्यांराज,
रोंवा बाई का लाम्बा-लाम्बा केश, कांगसियों बाईक सिर चढ्योजी राज।’
‘म्हारी गौर तिसाई ओ राज घाट्यारी मुकुट करो,
बीरमदासजी रो ईसर ओराज, घाटी री मुकुट करो,
म्हारी गौरल न थोड़ो पानी पावो जी राज घाटीरी मुकुट करो।’
रोंवा बाई का लाम्बा-लाम्बा केश, कांगसियों बाईक सिर चढ्योजी राज।’
‘म्हारी गौर तिसाई ओ राज घाट्यारी मुकुट करो,
बीरमदासजी रो ईसर ओराज, घाटी री मुकुट करो,
म्हारी गौरल न थोड़ो पानी पावो जी राज घाटीरी मुकुट करो।’
लड़कियां गीतों में गणगौर के प्यासी होने पर काफी चिन्तित लगती है एवं वे गणगौर को शीघ्रतिशीघ्र पानी पिलाना चाहती है। पानी पिलाने के बाद गणगौर को गेहूँ चने से बनी “घूघरी’’ का प्रसाद लगाकर सबको बांटा जाता है और लड़कियाँ गाती हैं:-
‘महारा बाबाजी के माण्डी गणगौर, दादसरा जी के माण्ड्यो रंगरो झूमकड़ो,
लगायोजी – ल्यायो ननद बाई का बीर, ल्यायो हजारी ढोला झुमकड़ो।’
लगायोजी – ल्यायो ननद बाई का बीर, ल्यायो हजारी ढोला झुमकड़ो।’
रात को गणगौर की आरती की जाती है तथा लड़कियां नाचती हुई गाती हैं:-
‘म्हारा माथान मैमद ल्यावो म्हारा हंसा मारू यहीं रहवो जी,
म्हारा काना में कुण्डल ल्यावो म्हारा हंसा मारू यहीं रहवोजी।’
म्हारा काना में कुण्डल ल्यावो म्हारा हंसा मारू यहीं रहवोजी।’
गणगौर पूजन के मध्य आने वाले एक रविवार को लड़कियां उपवास करती हैं। प्रतिदिन शाम को क्रमवार हर लड़की के घर गणगौर ले जायी जाती है, जहां गणगौर का ’बिन्दौरा’ निकाला जाता है तथा घर के पुरुष लड़कियां को भेंट देते हैं। लड़कियां खुशी से झूमती हुई गाती हैं:-
‘ईसरजी तो पेंचो बांध गोराबाई पेच संवार ओ राज महे ईसर थारी सालीछां।’
गणगौर विसर्जन के पहले दिन गणगौर का सिंगारा किया जाता है, लड़कियां मेहन्दी रचाती हैं, नये कपड़े पहनती हैं, घर में पकवान बनाये जाते हैं। सत्रहवें दिन लड़कियाँ नदी, तालाब, कुए, बावड़ी में ईसर गणगौर को विसर्जित कर विदाई देती हुई दु:खी हो गाती हैं:-
‘गोरल ये तू आवड़ देख बावड़ देख तन बाई रोवा याद कर…।’
गणगौर की विदाई का बाद त्यौहार काफी समय तक नहीं आते इसलिए कहा गया है-’तीज त्यौहारा बावड़ी ले डूबी गणगौर’ अर्थात् जो त्यौहार तीज (श्रवणमास) से प्रारम्भ होते हैं उन्हें गणगौर ले जाती है। ईसर-गणगौर को शिव पार्वती का रूप मानकर ही बालाऐं उनका पूजन करती हैं।
गणगौर के बाद बसन्त ऋतु की बिदाई व ग्रीष्म ऋृतु की शुरुआत होती है। दूर प्रान्तों में रहने वाले युवक गणगौर के पर्व पर अपनी नव विवाहित प्रियतमा से मिलने अवश्य आते हैं। जिस गोरी का साजन इस त्यौहार पर भी घर नहीं आता वो सजनी नाराजगी से अपनी सास को उलाहना देती है:-
‘सासू भलरक जायो ये निकल गई गणगौर, मोल्यो मोड़ों आयो रे…’
राजस्थान की राजधानी जयपुर में गणगौर उत्सव दो दिन तक धूमधाम से मनाया जाता है। ईसर और गणगौर की प्रतिमाओं की शोभायात्रा राजमहलों से निकलती है इनके दर्शन करने देशी-विदेशी सैनानी उमड़ते हैं। सभी उत्साह से भाग लेते हैं।
इस उत्सव पर एकत्रित भीड़ जिस श्रृद्धा एवं भक्ति के साथ धार्मिक अनुशासन में बंधी गणगौर की जय-जयकार करती हुई भारत की सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह करती है जिसे देख कर अन्य धर्मावलम्बी इस संस्कृति के प्रति श्रृद्धा भाव से ओतप्रोत हो जाते हैं। ढूंढाड़ की भांति ही मेवाड़, हाड़ौती, शेखावाटी सहित इस मरुधर प्रदेश के विशाल नगरों में ही नहीं बल्कि गांव-गांव में गणगौर पर्व मनाया जाता है एवं ईसर-गणगौर के गीतों से हर घर गुंजायमान रहता है।
हमें आवश्यकता है आज इस भक्तिमय, श्रृद्धापूर्ण एवं लोक कल्याण हेतु संस्थापित लोकोत्सव को संज्ञान वातावरण में मनाये जाने की परम्परा को अक्षुण बनाये रखने की। इसका दायित्व है उन सभी सांस्कृतिक परम्परा के प्रेमियों एवं पोषकों पर जिनका इससे लगाव है और जो सिर्फ पर्यटक व्यवसाय की दृष्टि से न देखकर भारत के सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से देखने के हिमायती हैं।
राजस्थान के नृत्य
घूमर –
घूमर नृत्य की मौलिक शुरूआत राजस्थान के दक्षिणी इलाकों में बसी भील जाति ने किया। घूमर नृत्य आज राजस्थान के उत्तरी इलाकों में भी किया जाता है। घूमर देश विदेश में राजस्थान की पहचान बन गया है। घूमर का अर्थ है घूमकर नाचना। नृत्य में महिलाएं अस्सी कली का घाघरा पहन कर गोलाकार घूमते हुए यह डांस करती है। अपनी मोहक अदाओं से यह नृत्य सभी का दिल जीत लेता है। राजस्थान के लोक कलाकार समय समय पर घूमर नृत्य का प्रदर्शन देश विदेश में करते रहते हैं। नृत्य के दौरान महिलाओं और पुरूषों का एक दल गायन करता है। रंग बिरंगी राजस्थानी पोशाक और आभूषणों से सजी महिलाएं घूमर नृत्य करते हुए बहुत आकर्षक लगती हैं। नृत्य के दौरान देवी सरस्वती का पूजन किया जाता है। यह नृत्य स्थानीय जातियों द्वारा शादी विवाह और शुभ अवसरों पर किया जाता है। जयपुर में तीज और गणगौर के अवसरों पर घूमर नृत्य खास तौर से किया जाता है।
राजस्थान का मुख्य लोक नृत्य का सिरमौर, राजसी नृत्य के नाम से भी जाना जाता हैं।
लहंगे के घेरे को घुम्म कहते हैं।
घूमर के साथ आठ मात्रा के कहरवे की विशेष चाल होती हैं जिसे सवाई कहते हैं।
मुख्य वाद्य ढोल, नगाड़ा, एवं शहनाई आदि होते हैं।
कालबेलिया
कालबेलिया राजस्थान की सपेरा जाति है। राजस्थान में जहां जहां सपेरा जातियां बसी हुई थी वहां यह शानदार डांस किया जाता था। धीरे धीरे कालबेलिया ने अपनी पोशाक और नृत्य के अनूठे तरीके के कारण पहचान बना ली। आज विश्वभर में कालबेलिया के प्रसंशक है। नृत्यांगनाओं में गजब का लोच और गति दर्शकों को मोहित कर देती है। यह नृत्य मूल रूप से महिलाओं द्वारा ही किया जाता है। नृत्य के दौरान काला घाघरा चुनरी और चोली पहनी जाती है। पोशाक में बहुत सी चोटियां गुंथी होती हैं जो नृत्यांगना की गति के साथ बहुत मोहक लगती हैं। तीव्र गति पर घूमती नृत्यांगना जब विभिन्न भंगिमाएं करती हैं तो दर्शक वाह कह उठते हैं। कलबेलिया की प्रसिद्ध नृत्यांगना गुलाबो कई देशों में इस नृत्य का प्रदर्शन कर चुकी है। नृत्य के दौरान बीन और ढफ बजाई जाती है। लोककलाकार सुरीली आवाज में गायन भी करते हैं।
राजस्थानी नृत्य संस्कृति विराट है और और दुनिया में कहीं अन्यत्र इतनी समृद्ध परंपराएं नहीं देखी जाती। राजस्थान के लोग अपनी परंपाराओं और संस्कृति से बेहद प्यार करते हैं और उन्हें बनाए रखने के लिए जाने जाते हैं। राजस्थान के लोग अपनी इस रंग बिरंगी संस्कृति पर बहुत गर्व भी करते हैं। करें भी क्यूं ना। राजस्थान की संस्कृति ने ही इस रेतीले राज्य को विश्व भर में अनूठी पहचान दिलाई है। जिसमें सबसे बड़ा योगदान है इन लोकनृत्यों का।
पणिहारी –
राजस्थानी लोक गीत पनिहारिन पर किया जाता हैं इसमें सिर पर 5-7 घड़े रखकर या हाथो में लेकर अंग संचालन के साथ नृत्य किया जाता हैं।
इंडोनी –
इंडोनी(घड़े एवं सिर के बीच रखे जाने वाला कपड़े का गोलाकार गड्डा) की भांति वृत्ताकार रूप में मिश्रित नृत्य हैं।
मुख्य वाद्य यन्त्र पूंगी एवं खंजरी हैं।
औरतों की पौशाक बड़ी कलात्मक होती हैं एवं इनके बदन पर मणियों की सजावट होती हैं।
यह युगल नृत्य हैं।
शेखावाटी क्षेत्र के नृत्य – गीन्दड, चंग, कच्छी घोड़ी
गीन्दड –
होली के दिनों में प्रह्लाद की स्थापना( डांडा रोपना ) के बाद यह नृत्य आरम्भ होता हैं।
कुछ पुरुष जो महिलाओं के स्वांग धारण कर नृत्य में भाग लेते हैं उन्हें महरी कहा जाता हैं।
चंग –
होली के बाद धुलंडी पर चंग बजाते हए किये जाने वाला यह पुरुष प्रधान नृत्य हैं।
होली के बाद धुलंडी पर चंग बजाते हए किये जाने वाला यह पुरुष प्रधान नृत्य हैं।
दुनिया के हर कोने में एक अलग कला और अलग संस्कृति है। विश्व के किसी भी समुदाय विशेष का रहन सहन, पहनावा, खान-पान, बोल-चाल, विचार और अभिव्यक्ति के तरीके अलग होते हैं। यही संस्कृति होती है। किसी संस्कृति का सबसे मनमोहक प्रदर्शन होता है उसके नृत्य में। दुनिया में शायद ही कोई ऐसी सभ्यता और संस्कृति हो जिसमें नृत्य ना हों। विभिन्न अवसरों पर संस्कृतियां अपने पारंपरिक नृत्य में खुशी का इजहार करती हैं। कहीं कहीं दुख प्रकट करने के लिए नृत्य किए जाते हैं।
इस मामले में भारत एक अजूबा देश माना जा सकता है।कला के मामले में भारत सबसे समृद्ध देशों की सूची में अग्रणी है। देश के हर हिस्से में खूबसूरत संस्कृतियां अपनी परंपराओं का बखूबी निर्वहन कर रही हैं। देश में राजस्थान ही ऐसा प्रदेश है जिसके हर हिस्से में एक अलग संस्कृति है और उनके नृत्यों में उन संस्कृतियों की खूबसूरत झलक देखने को मिलती है।
राजस्थान का हर हिस्सा एक खूबसूरत संस्कृति से ओत-प्रोत है और वैश्विक स्तर पर प्रदेश का हर नृत्य बहुत पसंद किया जाता है। राजस्थान के विभिन्न अंचलों में किस तरह का नृत्य किया जाता है। वह किसी खास संस्कृति का कैसे प्रतिनिधित्व करता है।
त्यौहार (Festival)
राजस्थान मेलों और उत्सवों की धरती है।
होली, दीपावली, विजयदशमी, क्रिसमस जैसे प्रमख राष्ट्रीय त्योहारों के अलावा अनेक देवी-देवताओं, संतो और लोकनायकों तथा नायिकाओं के जन्मदिन मनाए जाते हैं।
यहाँ के महत्त्वपूर्ण मेले हैं तीज, गणगौर(जयपुर), अजमेर शरीफ़ और गलियाकोट के वार्षिक उर्स, बेनेश्वर (डूंगरपुर) का जनजातीय कुंभ, श्री महावीर जी (सवाई माधोपुर मेला), रामदेउरा (जैसलमेर), जंभेश्वर जी मेला(मुकाम-बीकानेर), कार्तिक पूर्णिमा और पशु-मेला (पुष्कर-अजमेर) और श्याम जी मेला (सीकर) आदि।
लोकैकिक साहित्य
लोक साहित्य में लोकगीत, लोकगाथाएँ, प्रेमगाथाएँ, लोकनाट्य, पहेलियाँ, फड़ें तथा कहावतें सम्मिलित है। राजस्थान में फड़ बहुत प्रसिद्ध है। फड़ चित्रण वस्त्र पर किया जाता है। जिसके माध्यय से किसी ऐतिहासिक घटना अथवा पौराणिक कथा का प्रस्तुतिकरण किया जाता है। फड़ में एक अधिकतर लोक देवताओं यथा पाबूजी देवनारायण ने रामदेवजी इत्यादि के जीवन की घटना और चमत्कार का चित्रण होता है। फड़ का चारण भोपे करते हैं। राजस्थान में शाहपुरा (भीलवाड़ा) का फड़ चित्रण राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाये हुए है। भीलवाड़ा के श्रीलाल जोषी ने फड़ चित्रण को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में सहयोग किया। इस कार्य हेतु भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाजा है। इनमें पाबूजी री फड़, ‘देवजी री फड़’ तीज, गणगौर, शादी, मेलों पर गाये जाने वाले लोकगीत आते है।
शेखावटी ख्याल:-
राजस्थान में लोक नाटकों की परम्परा बहुत प्राचीन है। कहीं उसे रम्मत तो कहीं तमाशा भी कहा जाता है किन्तु इनमें विशेष ख्याति ’ख्याल‘ की है जिसे शेखावाटी क्षेत्र में विशेष लोकप्रियता प्राप्त है। लोक नाट्य परम्परा के जो रूप प्रचलित हैं उनमें कहीं न कहीं किसी नाट्य- तत्व का अभाव रहता है किन्तु शेखावाटी का ’ख्याल‘ नाटक के सभी तत्वों से युक्त होता है। विशेष बात यह है कि ’ख्याल‘ के रचनाकार की पूरी अथवा आंशिक जानकारी जनता को होती है। नाटक और ’ख्याल‘ में अन्तर यह है कि नाटक में देखना और सुनना दोनों प्रधान है जबकि ’ख्याल‘ में सुनना प्रधान है और देखना गौण। क्योंकि ख्याल संगीतात्मक संवाद में अभिनीत होता है। ख्याल-रचयिता को कविता की जानकारी साधारण होती है किन्तु संगीत का अभ्यास अधिक होता है। प्रायः लेखक भी अभिनय करता है और वह संगीत-प्रेमी होता है। चिड़ावा (शेखावाटी) के राणा नानूलाल ने इस क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त की है।
ख्यालों का इतिहास-
शेखावाटी के ख्यालों का इतिहास लगभग २०० वर्ष पुराना है। सबसे पहले फतेहपुर के प्रहलादी राम पुरोहित तथा झाली राम निर्मल ने अनेक ख्याल लिखे थे तथा अपनी मंडली बनाकर मारवाड़ी रंगत पर उनका अभिनय भी किया था। पेशेवर मंडली का रूप उन्होंने अपनी मंडली का नहीं दिया। उनके ख्यालों का प्रभाव शेखावाटी के तत्कालीन जागीरदार, सेठ साहूकार तथा जनमानस पर पड़ा और उन्हें लोकप्रियता प्राप्त हुई।
चिड़ावा के नानूराम राणा इस ख्याल मंडली के सदस्य थे किन्तु आगे चलकर उन्होंने एक अलग मंडली बना ली थी। नानूराम राणा को संगीत के प्रति प्रारम्भ से ही लगाव था। गुरु की कृपा से वे संगीतज्ञ, अभिनेता, नर्तक गायक और ख्यालों के रचनाकार बन गए। इनकी रचनाएँ ईश, सरस्वती और गणेश वन्दना से प्राप्त होती थी। अपने ख्यालों में गुरुजनों को स्थान-स्थान पर याद किया है-
श्री पंडित हरिदत्त जी मुजकूं काव्य का तंत पढ़ाया है।
गुरु कर कर किरपा मेरा अज्ञान काम छुटवाया है।
विप्र गुरु स्योबक्श राय मुकझूं गाना बतलाया है।
गुरु गोमंदराय जी मुझे नृतकारी भेद बताया है।
गुन गुन का मुरसद करना ये वेदों में फरमाया है।‘‘ - सुल्तान बादशाह को ख्याल।
नानूराम राणा चिड़ावा के ख्याल
नानूराम राणा ने लगभग ५० से अधिक ख्यालों की रचना की थी जिनमें प्रमुख ख्याल इस प्रकार हैं - खीमजी आभलदे, नकवै बैठा राजा, जगदेव कंकाली, ढोला मरवण, नल राजा, लैला मजनूं, पाक मोहब्बत, हीर रांझा, सभा पर्व, विराट पर्व (चार-भाग), रिसालू बेलादे, पठाण सहजादी, सुल्तान बादशाह, इन्द्र सभा, सोदागर, वजीरजादी, पृथ्वीराज चौहान, हमीर हठ, सेठ मुनीम, भगत पूरणमल, ढुल्लो घाड़ी, इन्द्र कंवर, नणद भौजायी, मालदे हाड़ी राणी, पद्मावती, राजा रिसालू, कीचक वध, सेठ-सेठाणी को ख्याल, डूँगजी-जवाहरजी, विणजास को ख्याल, सुलतान निहालदे, हरिश्चन्द्र, छोटा कंत, मोरधज, अमरसिंह को ख्याल व वीरमदे सौदागर।
नानूराम राणा ने अपने ख्यालों में दूहा, लावणी, शेर, झड, कवित्त, छप्पय, दुबोला, चौबोला, झेला आदि छंदों का प्रयोग किया। वे केवल रस सिद्ध कवि ही नहीं थे अपितु उच्च कोटि के गायक भी थे। उन्होंने अपने ख्यालों में सोरठ, भैरवी, असावरी, कलिंगड़ा, धनाश्री, केदार, पीलू, खमाच आदि राग-रागिनियों का प्रयोग किया था। गोविन्दरामजी से प्रेरणा पाकर ’तुर्रा कलंगी‘ ख्याल परम्परा का शुभारम्भ नानूलाल ने किया था। उन्होंने लिखा है-’गोविन्दराम के चरण बिच नानूलाल चित लागा।‘ ’राजा नल को ख्याल‘ इसी परम्परा का ख्याल है। नानूराम को शास्त्रों, संस्कृति और राजस्थान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अच्छा ज्ञान था।
नानूराम के दो पुत्र महादेव और विद्वदूलाल थे जिनमें विद्वदूलाल कवि तथा ख्याल लेखक थे। नानूराम के बाद उनके भतीजे दुलीचन्द (दलूजी) ने सर्वाधिक ख्याति अर्जित की जो खंडेला में रहकर ख्यालों की रचना और अभिनय करता था। खेतड़ी नरेश श्री अजीतसिंह जी ने नानूराम राणा का सम्मान किया था। तथा उनके भतीजे दुलीचन्द का सम्मान राष्ट्रपति ने किया था। उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर ने सन 1968-69 में सम्मानित किया था। शेखावाटी में नानूराम राणा के बाद सर्वाधिक प्रसिद्धि दुलीचन्द राणा को प्राप्त हुई जिन्हें लोग आत्मीय भाव से दुलिया कहते थे। चिड़ावा के अस्वादत्त इसी समय के अच्छे ख्याल लेखक थे। गुरु परम्परा में धन्त्धन्न उस्ताद (पं. घनश्याम दास) पं. हरदत्त राय, गोविन्दराम दर्जी (नर्तक) तथा शिवबक्श इस अंचल के चार महान स्तम्भ थे जिन्होंने शेखावाटी की ख्याल परम्परा को उच्च शिखर तक पहुँचाया था।
नानूराम इस शैली के मुख्य खिलाड़ी रहे हैं। उनका स्वर्गवास ६५ साल पहले हुआ, फिर वे अपने पीछे स्वचरित ख्यालों की एक धरोहर छोड़ गए हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित है -
नानूराम इस शैली के मुख्य खिलाड़ी रहे हैं। उनका स्वर्गवास ६५ साल पहले हुआ, फिर वे अपने पीछे स्वचरित ख्यालों की एक धरोहर छोड़ गए हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित है -
(1) हीरराझाँ (2) हरीचन्द्र (3) भर्तृहरि (4) जयदेव कलाली (5) ढोला मरवड़ और (6) आल्हादेव।
नानूराम चिड़ावा के निवासी थे, और मुसलमान थे। किन्तु सभी जाति के लोग उनका बडडा सम्मान करते थे। अपनी कला के लिए वे आज भी सभी सम्प्रदायों में याद किए जाते है। उनके योग्यतम शिष्यों में दूलिया राणा का नाम लिया जाता है, जो उपर्युक्त सभी ख्याल अपने भतीजे के साथ खेला करते हैं।
(1) अच्छा पद संचालन,
(2) पूर्ण सम्प्रेषित हो सके उस शैली, भाषा और मुद्रा में गीत गायन,
(3) वाद्यवृन्द की उचित संगत, जिनमें प्राय: हारमोनियम, सारंगी, शहनाई, बाँसुरी, नक्कारा तथा ढोलक का प्रयोग करते हैं।
दुलिया राणा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र सोहन लाल तथा पोते बन्सी बनारसी आज तक भी साल में आठ महीनों तक इन ख्यालों का अखाड़ा लगाते हैं। दूलिया राणा, जिन्हें गुजरे अधिक अर्सा नहीं हुआ, स्री चरित्रों की भूमिका बड़ी कुशलता से निभाते थे और यह क्रम उन्होंने 80 वर्ष की अवस्था तक जारी रखा। वे जितने अच्छे गायक थे उतने ही अच्छे नृतक भी थे। शेखावटी के पूरे इलाके में दूलिया के ख्याल बहुत लोकप्रिय है। उनके ख्यालों के गीतमय संवाद उन्हें साहित्यिक तथा रंगमंच के बहुत अनुकूल बनाते हैं। इस इलाके के हजारों लाखों लोग इन ख्यालों को निशुल्क देखते हैं और अपना मनोरंजन करते हैं। दूलिया राणा के परिवार के लोग ही इन ख्यालों में होने वाले व्यय का निजी तौर पर वहन करते हैं और खिलाड़ियों को स्वयं पारिश्रमिक भी देते हैं। इन ख्यालों के खिलाड़ी प्राय: मिरासी, ढोली और सरगड़ाओं में से ही होते हैं। परन्तु जो अन्य जाति के लोग इसमें शरीक होना चाहें तो उन पर कोई पाबंदी नहीं है। यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि इन जातियों के अलावा भी अन्य गैर-पेशेवर जाति के लोग केवल मनोविनोद के लिए बी इन ख्यालों को अपने स्तर पर भी सम्पन्न करते हैं।
उजीरा तेली –
नानूराम के शिष्य उजीरा (वजीरा) तेली ने उनसे शिक्षा प्राप्त कर अपनी पृथक् मंडली बना ली थी। वे मूलतःचिड़ावा के रहने वाले थे। नानूराम राणा और उजीरा तेली के युग को ख्याल लेखन और अभिनय के क्षेत्र में शेखावाटी का स्वर्ण युग कहा जाता है। उजीरा ने विशेष रूप से शेर, लावणी, दोहा, छप्पय आदि छंदों का प्रयोग किया था। उजीरा तेली ने लगभग 24 ख्यालों की रचना की थी जिनमें प्रमुख हैं - वीरमदे शहजादी, माल दै हाड़ी रानी, माधवानल काम कंदला, पन्ना वीरमदे, नरसी जी रो भात, निहालदे सुलतान, राजा हरिश्चन्द्र, इन्द्रपुरी अमरसिंह मालदे, हाड़ी रानी अमरसिंह राठौर, सुल्तान मरवण भात सीलो सतवंती आदि।
फतेहपुर में सर्वश्री प्रहलादी राम पुरोहित, झालीराम निर्मल, प्रेमसुख भोजक उच्च कोटि के ख्याल लेखक एवं अभिनेता हुए है। उन्होंने अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अलग-अलग मंडलियों का गठन किया। इनके द्वारा खेले गए ख्याल अत्यन्त लोकप्रिय रहे हैं।
श्री प्रहलादीराम पुरोहित द्वारा रचित ख्याल
निहालदे सुल्तान का ख्याल, बारहमासा, कलकत्ते की गजल, दूल्हे धाडवी को ख्याल, शहजादे का ख्याल, बिणजारे को ख्याल, मोरध्वज को ख्याल, राजा नल को ख्याल, दानलीला ख्याल, मणिहारी लीला ख्याल, राजा रिसालू रो ख्याल, छोटे कंथ का ख्याल और गोपीचन्द का ख्याल आदि। प्रहलादीराम पुरोहित के ख्याल गायकी और कथानक की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिनमें शेखावाटी अंचल की लोक संस्कृति भावनाओं और समाज की पीड़ाओं से जुड़ी हुई है। चिड़ावा के नानूराम राणा का उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध था।
श्री झालीराम निर्मल
श्री झालीराम निर्मल अपने समय के प्रसिद्ध लेखक थे जो प्रहलादीराम के समकालीन थे किन्तु उनकी पृथक मंडली थे। वे अच्छे कलाकार भी थे। उनके द्वारा लिखे गये निम्नलिखित ख्याल प्रकाशित हो चुके हैं - ख्याल जोहरी का, रिसालू राजा को ख्याल, निहालदे सुलतान, शहजादे को ख्याल, बिणजारे को ख्याल आदि। उनकी गायकी की एक अलग शैली थी जिसमें दूहों का प्रयोग अधिक होता था। राजस्थान के अनेक स्थानों पर अपने ख्यालों का अभिनय किया था दूसरे कलाकारों से सम्पर्क कर नवीन शैलियाँ सीखकर उनका प्रयोग किया था।
श्री प्रेमसुख भोजक
प्रेमसुख भोजक कवि, अभिनेता, गायक और स्वाँगधारी थे। नुक्कड़ नाटकों की शैली में शहर की गलियों में मंच बनाकर ख्यालों का मंचन करते थे। भोजक जी पर सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का गहरा प्रभाव पड़ा था। अंग्रेज विरोधी भावना उनके ह्यदय में कूट-कूट कर भरी थी। वे परम देश भक्त एवं परोपकारी कलाकार थे। शोषण और अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाकर उन्होंने ’डूंगजी-जवाहरजी ख्याल‘ की रचनाकर सशक्त अभिनय किया था। उनकी वाणी में ओज था। उनका यह प्रभावशाली ख्याल इतना प्रसिद्ध था कि उसे देखने के लिए जन समुदाय उमड़ पड़ता था। ख्यालों के माध्यम से उन्होंने इस अंचल में अंग्रेजों के विरुद्ध लोक चेतना जाग्रत की थी। फतेहपुर में उन्हें लोक देवता के रूप में याद किया जाता है।
’राजा मोरधज‘ उनका दूसरा प्रभावशाली ख्याल था। राजा मोरधज और उनकी रानी द्वारा अपने राजकुमार रत्नकुंवर के सिर को करोत द्वारा चीरने के दृश्य को देखकर सीकर के राव राजा माधवसिंह दर्शकों के साथ रोने लग गये थे। करुणा से विचलित होकर राव राजा ने श्री भोजक को यह निर्देश दिया कि भविष्य में ऐसा दुखान्तः ख्याल मत खेलना। यद्यपि राव राजा भोजक जी के इस प्रदर्शन पर बहुत खुश थे उन्होंने अनेक व्यंग्यात्मक कविताएँ भी लिखी थी। उन्होंने लगभग 20 ख्यालों की रचना की थी जिनमें डूंगजी जवाहरजी, राजा मोरधज, राजा भोज, राजा करण, राजा विक्रमादित्य, सेठ-सेठानी, शिशुपाल-रूक्मणी और जाट को ख्याल प्रमुख हैं। इनके सहयोगी श्री माला भोजक ने भी कुछ ख्यालों की रचना की थी।
ख्यालों के अभिनय का क्षेत्र-
ख्यालों के अभिनय के क्षेत्र राजस्थान की चिड़ावाँ से फतेहपुर शेखावटी तक फैला हुआ है। ख्याल के जन्म के लिये बिसाऊ विशेष रूप से जाना जाता है क्योंकि नानूराम राणा अपने ख्यालों का प्रथम मंचन इसी स्थान पर करते थे। यहाँ के विद्वानों एवं ख्याल प्रेमियों से आज्ञा लेकर ही अपने द्वारा रचित ख्यालों का मंचन दूसरे स्थानों पर करते थे। गुरु सदारामजी बिसाऊ के प्रसिद्ध ख्याल लेखक थे जो गायक एवं अभिनेता भी थे। शेखावाटी के प्रमुख कलाकार इनसे निर्देशन प्राप्त करते थे। संगीत, साज-सज्जा एवं अभिनय के क्षेत्र में उनकी कोई बराबरी नहीं कर सका। प्रेम, धर्म एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से सम्बद्ध अनेक ख्याल लिखे जिनमें ’नसरुद्दीन हसन फरोस‘ का प्रकाशन भी हुआ था। बिसाऊ में ’राणा‘ जाति के अनेक लोक गायक हुए हैं जिन्होंने ख्याल परम्परा को अभिनय के माध्यम से आगे बढ़ाया है। गजानन्द घोड़ीवाला के लिखे हुए अनेक ख्यालों का मंचन श्री नानूराम राणा और उनके सहयोगियों ने किया था।
शेखावाटी के चिड़ावा क्षेत्र के समानान्तर फतेहपुर क्षेत्र भी लोकनाट्य के लिए सुविख्यात रहा है। यहाँ की ख्याल परम्परा किशनगढ़ी ख्याल, कुचामणी ख्याल तथा बीकानेरी रम्मतों से भिन्न रही है। हाथरस की नौटंकी व मध्यप्रदेश में प्रचलित ’माच‘ परम्परा से भी वह सर्वथा भिन्न है।
फतेहपुर शेखावाटी में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ख्याल परम्परा का विकास हुआ। नवाबी काल में यहाँ के सेठ व्यापार के लिए बंगाल, आसाम और महाराष्ट्र चले गये किन्तु 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब प्रवासी लोग धन लेकर लौटे तो उन्होंने कलात्मक हवेलियों का निर्माण करवाया जिनके भित्ति चित्र विश्व प्रसिद्ध हैं। मनोरंजन के लिए धनाढ्य सेठों ने उत्तरप्रदेश की नौटंकी कला के लोक कलाकारों को आमंत्रित किया जिनसे प्रेरणा पाकर यहाँ के स्थानीय कलाकारों ने अपनी पहचान बनाते हुए अनेक ख्याल-मंडलियों की स्थापना की। परिणामतः शेखावाटी में इन ख्यालों के माध्यम से नृत्य, संगीत और अभिनय का शुभारम्भ हुआ। परम्परागत वाद्य यंत्रों का पुनः प्रचलन बढ़ा।
फतेहपुर शेखावाटी में उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ख्याल परम्परा का विकास हुआ। नवाबी काल में यहाँ के सेठ व्यापार के लिए बंगाल, आसाम और महाराष्ट्र चले गये किन्तु 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब प्रवासी लोग धन लेकर लौटे तो उन्होंने कलात्मक हवेलियों का निर्माण करवाया जिनके भित्ति चित्र विश्व प्रसिद्ध हैं। मनोरंजन के लिए धनाढ्य सेठों ने उत्तरप्रदेश की नौटंकी कला के लोक कलाकारों को आमंत्रित किया जिनसे प्रेरणा पाकर यहाँ के स्थानीय कलाकारों ने अपनी पहचान बनाते हुए अनेक ख्याल-मंडलियों की स्थापना की। परिणामतः शेखावाटी में इन ख्यालों के माध्यम से नृत्य, संगीत और अभिनय का शुभारम्भ हुआ। परम्परागत वाद्य यंत्रों का पुनः प्रचलन बढ़ा।
ख्यालों का कथानक
यहाँ एक ही शीर्षक से सभी लेखकों ने ख्यालों की रचना की है किन्तु उनमें कथानक सम्बन्धी परिवर्तन मिलता है तथा संवाद और गायकी में भी आंशिक अन्तर है। शेखावाटी के ख्यालों में काव्य, अभिनय, संगीत और नृत्य सम्बन्धी तत्त्वों में समानता भी मिलती है। ख्याल प्रारम्भ करने की भी एक निश्चित परम्परा है, जिसमें खुले मंच का प्रयोग होता है। वादक और गायक निश्चित स्थान पर बैठते हैं तथा नारी पात्रों का अभिनय करने वाले पात्र भी पुरुष ही होते हैं। सर्वप्रथम गणेश, सरस्वती पूजन तथा वन्दना की जाती है। गुरु के नाम का स्मरण किया जाता है। खेल प्रारम्भ होने से पहले सफाई वाला, भिश्ती और चोबदार आकर अपना कार्य संपादित करते हैं। ख्याल का परिचय भी दिया जाता है। ख्याल में देश, काल और पात्र का पूरा ध्यान रखा जाता है। यहाँ के साहित्यिक गौरव को बनाए रखने में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण हैं। लक्ष्मणगढ़ के कालूराम बालूराम ने शेखावाटी की ख्याल लेखन परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अनेक ख्याल लिखे थे।
कथावस्तु की दृष्टि से शेखावाटी क्षेत्र में पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, शौर्य प्रधान, प्रेम प्रधान एवं हास्य प्रधान विषयों पर ख्याल लिखे गये हैं। ख्यालों की भाषा बोलचाल की मारवाड़ी बोली है जिसमें उर्दू एवं कहीं-कहीं ब्रज हरियाणवी भाषा के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इन संगीत प्रधान लोक नाटकों में दूहा, चौपाई, सोरठ, लावणभू, कवित्त, छप्पय, दुबोला, चौबोला, झेला आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है। भाव एवं रस दृष्टि से कहीं कोई न्यूनता नहीं है तथा शब्द, छन्द, अलंकार नीति एवं प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से इनका साहित्यिक महत्त्व है। संगीत, नृत्य एवं अभिनय की त्रिवेणी के रूप में शेखावाटी के ख्याल आज भी प्रचलित हैं। शेखावाटी से जुड़े हरियाणा प्रदेश के लोक नाटकों का इन पर प्रभाव अवश्य पड़ा किन्तु अपनी परम्परागत मूल शैली की यहाँ के लोक कलाकारों ने रक्षा की है। सीमावर्ती हरियाणा के चन्दरवादी, धनपत, लख्मीचन्द और चन्द्रपाल जाट ने भी अपने लोक नाटकों (ख्याल) का अभिनय किया है किन्तु कलात्मकता एवं लोक संगीत की दृष्टि से वे काफी पीछे रहे हैं।
राजस्थानी संस्कृति की झलक
शेखावाटी के लोक नाटकों ने राजस्थानी संस्कृति की निरन्तर रक्षा की है एवं विभिन्न सम्प्रदाय के लोगों में समरसता का भाव बनाए रखा है। इन ख्यालों के माध्यम से त्याग, बलिदान, धार्मिक, सहिष्णुता, परजन हिताय की भावना उत्पन्न होती हैं। राजस्थान के लोक संगीत को जीवित रखने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। यहाँ के लोक नाटकों ने हास्य एवं व्यंग्य के माध्यम से लोकमानस की प्रतिक्रियाओं को बड़े प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है। लोकाचार और सदाचार का संदेश देने में शेखावाटी के लोक नाटक राजस्थान में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने हमारी परम्परागत लोक-शैली को प्रभावित अवश्य किया है किन्तु राजस्थानी संस्कृति की रक्षा के लिए आज भी लोक नाटक प्रासंगिक हैं। अंत में यही कहा जा सकता है कि शेखावाटी के लोक नाटकों का पाठकों और दर्शकों के लिए यही संदेश है-
’’खाना पीना खेलना है कोई दो दिन की बात।
आखर कू मर जाना बन्दे, कछु ना चले है साथ।।
आखर कू मर जाना बन्दे, कछु ना चले है साथ।।
राजस्थानी लोकयन्त्र
राजस्थानी लोक यंत्र के विशाल सामग्री की एक किस्म से नवाजा जाता है। सभी आकृति और आकार के सूखे लौकी के गोले भटकटैया के लिए उपजा या ड्रम के लिए बांसुरी और पके हुए मिट्टी के बर्तन के लिए बांस खंडों इस्तेमाल कर रहे हैं। गुंजयमान ध्वनियों का उत्पादन करने के लिए शंख पूर्ण, एक छीलन लय और कमर तथा टखनों पर घुंघरू (पीतल की घंटी) जिंगल पैदा करते हैं।सारंगी
सारंगी सबसे महत्वपूर्ण लोक संगीत यंत्र है और राजस्थान में विभिन्न रूपों में पाया जाता है।
रावणहत्था
यह भोपा द्वारा बजाने वाला एक धनुष के आकार का एक यंत्र हैं। यह दो मुख्य तार और आधे नारियल के खोल के पेट और बांस की एक संस्था के साथ, तार का समर्थन करने का एक चर संख्या है। धनुष से जुड़ी एक घुंघरू (घंटी) होती है। जब भोपा इसको बजाते हैं तो घुंघरू हिलता हैं और गाते हैं।
अलगोज़ा
अलगोज़ा दो बाँसुरियो का एक मिश्रण होता हैं जिसको एक साथ बजाय जाता हैं और बड़ो के द्वारा गाना गाया जाता हैं। यह सपेरों की पूंगी के समान नहीं होता हैं। इसको एक गोला बनाकर अलगोज़ा बजाया और गाया जाता हैं।
सतारा और नगाड़ा
लंगस के सतारा एक लंबी बांसुरी है जो एक और बांसुरी के साथ सबसे विचारोत्तेजक संगीत पैदा करता है और लंबे समय तक खोखले ट्यूब, जिसमें खिलाड़ी सीटी के साथ एक ऊर्ध्वाधर बांसुरी, एक ही समय में उसके गले में एक गीत गूँजता रहता हैं।पूंगी
सपेरों की पूंगी और अपने अनुकूलन मुरला कहा जाता है। दोनों दो नलियों, नोट्स के लिए एक और गबन के लिए अन्य है। सपेरे पूंगी द्वारा अपनी रोजी रोटी का इंतजाम कर जीवन व्यापन करते हैं।
मटका
पाबूजी की मटका और घड़ा विशाल मिट्टी के बर्तन की एक जोड़ी, उनके मुंह झिल्ली के साथ कवर करते हैं। एक खिलाड़ी मटका खेलता है और भोपा गाना गाते हैं।
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